मध्यप्रदेश मंत्रिमंडल का बहु प्रतीक्षित विस्तार हो ही गया। जो खुद को बहुत बड़े नेता बताते नहीं थकते थे और बड़ी, बहुत बड़ी राजनीति का दावा करते फिरते थे, सब के सब अपने जूनियर के मंत्रिमंडल में शामिल हो गए। रमेश मेंदोला जाने कब से मंत्री बनने की राह में खड़े हैं, इस बार भी खेत रहे।
पिछली बार सिंधिया समर्थक नौ मंत्री बने थे, इस बार तीन ही रह गए। पिछली बार के नौ में से तीन तो चुनाव हार गए। एक को टिकट नहीं मिला और दो को इस बार मंत्री नहीं बनाया। राज्य के किसी नेता की खेमेबाज़ी नहीं चली। मंत्रिमंडल का एक- एक नाम दिल्ली से ही फ़ाइनल हुआ। हो सकता है किसी से कुछ पूछा भी नहीं गया हो। लगता है आगे भी तमाम फ़ैसले दिल्ली से ही लिए जाते रहेंगे।
जातीय जनगणना के जवाब में इस बार मंत्रिमंडल में पिछड़े वर्ग की ज़रूर चालीस प्रतिशत भागीदारी सुनिश्चित की गई। पिछली बार यह प्रतिशत छत्तीस था। कहा जा रहा है कि जूनियर, सीनियर नहीं देखा गया। बड़े- बड़ों को मंत्री पद देकर इसलिए खुश किया गया है ताकि लोकसभा चुनाव में पार्टी को कोई नुक़सान नहीं हो।
दरअसल, बड़े नेताओं से सांसदी पहले ही छुड़वा ली गई थी। केंद्र का मंत्री पद उनके पास बचा नहीं था। ऐसे में इन्हें राज्य में भी मंत्री पद न देकर ख़ाली नहीं रखा जा सकता था। इसलिए इन सब को काम देने के चक्कर में आदिवासी मंत्रियों की संख्या कम रह गई।
शिवराज सिंह चौहान बेचारे नए मंत्रिमंडल को बधाई देने के सिवाय कुछ कर नहीं सकते थे, इसलिए बधाई दी। नए मुख्यमंत्री को अपना नेता भी बताना पड़ा। चुनाव बाद कहते थे दिल्ली नहीं जाऊँगा। पार्टी से कोई पद माँगने से मरना ठीक होगा। लेकिन कदम पीछे हटाना पड़ा। ये राजनीति है। यहाँ कोई किसी का स्थाई सगा या स्थाई दुश्मन नहीं होता। ठीक है, कोई अठारह साल तक मुख्यमंत्री रह तो चुके। अब क्या करना है? क्यों बार- बार वही काम करना?
ख़ैर, फ़िलहाल लोकसभा चुनाव से पहले देश में राम मंदिर की धूम मची है। पूरे देश को राम मय करने की योजना है। करना ही चाहिए। साढ़े चार सौ साल के संघर्ष के बाद अब मंदिर का सपना साकार होने जा रहा है। देश अपने राम के वापस अयोध्या लौटने और मंदिर में विराजने की प्रतीक्षा में है। तेईस जनवरी को रामलला अपने भव्य मंदिर में विराजेंगे। यह निश्चित ही एक ऐतिहासिक पल होगा।